रायपुर। छत्तीसगढ सरकार के पांच वर्षों के कार्यकाल ने राजनीतिक प्रतिशोध और प्रशासनिक दुरुपयोग की मिसाल कायम की। इस दौरान 1994 बैच के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जीपी सिंह को सत्ता का विरोध करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी। उनकी प्रतिष्ठा, करियर, और निजी जीवन को नष्ट करने के लिए सुनियोजित साजिशें रची गईं। सत्ता के गलियारों में एक अधिकारी को फंसाने के लिए कैसे सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया जा सकता है, यह मामला उसकी नजीर बन गया है।
नान घोटाले से शुरू हुआ राजनीतिक प्रतिशोध
2018 में सत्ता परिवर्तन के बाद ईओडब्ल्यू के तत्कालीन प्रमुख जीपी सिंह पर नान घोटाले में पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह और अन्य भाजपा नेताओं को फंसाने का दबाव बनाया। जीपी सिंह ने इस राजनीतिक दबाव के आगे झुकने से इनकार कर दिया। उनके इस फैसले ने उनके लिए बर्बादी के दरवाजे खोल दिए।
इसके बाद, सत्ता का दुरुपयोग करते हुए उनके खिलाफ लगातार षड्यंत्र रचे गए। उन्हें न केवल पद से हटाया गया, बल्कि उनके खिलाफ फर्जी मामले भी दर्ज किए गए। अंततः उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, और उनकी छवि को धूमिल करने के लिए एसीबी (एंटी करप्शन ब्यूरो) जैसे संस्थानों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया।
एसीबी की मनगढ़ंत कहानी: अवैध संपत्तियों का फर्जीवाड़ा
जीपी सिंह के खिलाफ एसीबी ने 17 संपत्तियों की एक सूची तैयार की, जिनमें से अधिकांश का उनसे कोई लेना-देना नहीं था। उदाहरण के लिए, एक संपत्ति जिसे जीपी सिंह के पिता परमजीत सिंह की बताया गया, वह वास्तव में किसी अन्य व्यक्ति के नाम पर थी। इसी तरह, 1983 में खरीदी गई कई संपत्तियों को भी उनके नाम से जोड़ा गया, जबकि उस समय जीपी सिंह मात्र 9वीं कक्षा के छात्र थे।
यह आरोप न केवल हास्यास्पद थे, बल्कि सत्ता के दुरुपयोग और सरकारी संस्थानों की साख पर भी सवाल उठाते हैं। इन संपत्तियों को अवैध घोषित कर यह दावा किया गया कि जीपी सिंह ने इन्हें भ्रष्ट तरीकों से अर्जित किया था।
सोने के बिस्कुट का षड्यंत्र
जब एसीबी के पास जीपी सिंह के खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिला, तो उन्होंने एक और मनगढ़ंत कहानी तैयार की। स्टेट बैंक के अधिकारी मणिभूषण को निशाना बनाकर उनके वाहन में सोने के बिस्कुट रखवाए गए और इन्हें जीपी सिंह की अवैध संपत्ति घोषित कर दिया गया।
मणिभूषण ने अपने बयान में आरोप लगाया कि एसीबी अधिकारियों ने उन्हें धमकाया और उनके खिलाफ झूठे सबूत गढ़ने का दबाव डाला। उन्होंने यह भी दावा किया कि एसीबी ने सीसीटीवी फुटेज को मिटाने का प्रयास किया ताकि उनकी साजिश उजागर न हो।
राजद्रोह का मामला
एसीबी ने जीपी सिंह पर राजद्रोह का मामला भी दर्ज किया। एक आरेंज लिफाफे में कथित रूप से ‘राष्ट्रविरोधी दस्तावेज’ प्लांट किए गए। सवाल यह उठता है कि एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी, जो न तो राजनीतिक पद पर है और न ही किसी षड्यंत्र में शामिल है, ऐसा दस्तावेज क्यों रखेगा और क्यों लिखेगा?
एसीबी और मुख्यमंत्री कार्यालय का गठजोड़
इस पूरे मामले में एसीबी अधिकारियों और मुख्यमंत्री कार्यालय के बीच सांठगांठ की बात सामने आई है। एसीबी अधिकारियों, जिनमें डीआईजी और इंस्पेक्टर शामिल थे, पर आरोप है कि वे मुख्यमंत्री कार्यालय के सीधे संपर्क में थे। इन अधिकारियों ने बार-बार कहा कि किसी भी तरह से जीपी सिंह को अवैध संपत्तियों और भ्रष्टाचार के मामलों में फंसाया जाए।
मणिभूषण ने अपने बयान में खुलासा किया कि एसीबी के सपन चौधरी और अमित नायक ने उन्हें धमकाया और यहां तक कि पॉक्सो जैसे गंभीर मामलों में फंसाने की धमकी दी। मणिभूषण ने यह भी आरोप लगाया कि सीसीटीवी फुटेज को मिटाने के लिए एसीबी ने डीवीआर को बिना रसीद के जब्त कर लिया।
जीवन और करियर की बर्बादी
पिछले पांच वर्षों में जीपी सिंह ने अपनी नौकरी, प्रतिष्ठा और पारिवारिक शांति सब कुछ खो दिया। उन्हें प्रशासनिक प्रताड़नाओं के साथ-साथ मानसिक और सामाजिक दबाव का सामना करना पड़ा। अदालतों के चक्कर काटते हुए, उन्होंने अपने सम्मान को बचाने की लड़ाई लड़ी।
सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की याचिका को खारिज करते हुए केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) के फैसले को बरकरार रखा, जिसमें जीपी सिंह की पुनः बहाली का आदेश दिया गया था। यह फैसला न केवल जीपी सिंह के लिए न्याय का प्रतीक है, बल्कि उन शक्तियों के लिए भी एक सख्त संदेश है जो सत्ता का दुरुपयोग कर ईमानदार अधिकारियों को प्रताड़ित करने का प्रयास करती हैं।