
कोरबा। इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है…? साल 1978 में आई फिल्म ‘गमन’ का ये गाना आज की ऊर्जाधानी के धनरास में रहने वाले किसानों की स्थिति को बड़ी सहजता से उकेरता है। यहां की हवा में जहर घुला हुआ है, हर सांस धनरास वालों पर भारी है। अंतर सिर्फ इतना है कि एनटीपीसी प्रबंधन दर्द देकर दवा भी बांट रहे हैं।
बात एनटीपीसी राखड़ डेम धनरास की है। 16 सौ की आबादी वाले इस गांव में गुजर बसर करने वाले लोग राख खाते, पीते और राख में जीते हैं..! देश को ऊर्जा देने वाले थर्मल पॉवर प्लांट से निकलने वाले कोयले की राख से प्रबंधन ग्रामीणों को घाव देता है और भाव (₹) देकर मरहम भी लगाने से नहीं चूकता।
असल में प्रबन्धन के नुमाइंदों ने हर चीज की कीमत तय कर रखा है .. कोयले की राख खाने के लिए एक परिवार के लोगों को औसतन 10 दिन का मुआवजा देता है। सामाजिक कार्यक्रम वाले दिन राख उड़ने पर 15 हजार कंपनसेशन राशि अलग से।
ये अलग बात है कि कोयले की राख से होने वाली बीमारी के लिए मिल रहा भाव भी कभी कभी अभाव पैदा कर जाता है। राखड़ डेम के बीच बसे इस गांव के बारे में शत्रुघन सिन्हा का संवाद ” जली को आग, बुझी को राख और जिस राख से भाव मिले उसे धनरास कहते है” सटीक बैठता है।