कटाक्ष

Export of TP Nangar’s statement : दो फूल की दबंगई, खर्चे और सार्थक चर्चे,मुसद्दीलाल और भ्रष्टाचार…पाला और ताला

दो फूल की दबंगई.. “कानून के लंबे हाथों को…

वकीलों की खाकी के खिलाफ हुए आंदोलन का ऊंट किस करवट बैठेगा, विभिन्न बिंदुओं पर इसका आंकलन कर रही पब्लिक को अंतिम परिणाम की प्रतीक्षा है।

खबरीलाल की मानें तो चर्चा इस बात की हो रही है कि आखिर आंदोलन के बाद खाकी का खौफ रहेगा या फिर कानून का रौब! वैसे कानूनी दांव-पेंच के बीच पब्लिक पीस रही है। तभी तो कबीर दास की एक पंक्ति को याद की जा रही है “चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोये दो पाटन के बीच में सबूत बचा न कोई” …संत कबीर की ये पंक्तियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कल तक थी।

साम्राज्य में जब भी दो सुरमों में लड़ाई होती है तो उसके बीच में आम जनता पिसती है। यही स्थिति इन दिनों खाकी और काले कोट के बीच पब्लिक की देखी जा रही है। एक पक्ष कह रहा है “कानून के हाथ बहुत लंबे होते है” तो दूसरा पक्ष यह कहता है “लंबे हाथ को हमें मोड़ना आता है।” इन सबके बीच एक और बात की चर्चा लोगों की दबी जुबां पर हैं वो ये कि इतने विवादित अफसर के सर पर उच्चाधिकारियों का हाथ क्यों है?

खैर इस बात का पटाक्षेप तो साहब ही कर सकते हैं। लिहाजा सभी अपने अपने तरीके से वकील की गिरफ्तारी और दो फूल की दबंगई का आंकलन कर रहे हैं।

 

सरकारी धन के बेकार खर्चे और सार्थक चर्चे..

साल 2006 में एक मूवी आई थी जिसका गाना हिट हुआ था ” जय जय मनी…” ठीक इसी अंदाज में शहर निकाय के अधिकारी काम कर रहे हैं। और पब्लिक के पैसे से “जय जय मनी” का गाना गुनगुना रहे हैं। हम बात शहर के सुंदरीकरण का कर रहे हैं, जहां बिना प्लानिंग के पब्लिक के पैसे को पानी की तरह बहाया जा रहा है।

पिछले साल हुए सौंदर्यीकरण के नाम पर शहर की सड़कों में लगभग 85 लाख के पेंटिंग और विद्युत पोल में लगभग 40 लाख के लाइटिंग लपेटे को लोग भूले भी नहीं और फिर से पुराना खेला खेलने की पटकथा लिखा जा रहा है।

खबरीलाल की माने तो निगम के आला अधिकारी अब फिर से सौंदर्यीकरण के नाम से फिजूलखर्ची की तैयारी कर साकेत भवन के सामने वाली सड़क किनारे गार्डन के नाम पर कर रहे हैं। सड़क किनारे में जो खर्च होना है बाकायदा इसे मूर्त रूप देने के लिए हिस्सेदारी का भी खाका खींचा जा चुका है।

सड़क से सटे खाली जगह को घेरकर वॉल खड़ा किया जा रहा है। जिस जगह को घेरा जा रहा है वहां जितने लोग ठेले खोमचे लगाकर अपना जीवकोपार्जन चला रहे थे उन्हें हटाने का एक तरह से षडयंत्र रचा जा रहा है। चाहते तो इस स्थान पर व्यावसायिक परिसर बनाकर निगम के राजस्व को मजबूत किया जा सकता था लेकिन न जाने किसको क्या सूझी की सौंदर्यीकरण के नाम पर फिर से सरकारी धन को खर्च कर हिस्सेदारी की तैयारी की गई ।

बहरहाल बेकार खर्चा हो तो सार्थक चर्चा का विषय बनता ही है क्योंकि खर्चा और चर्चा का चोली दामन का साथ है।

मुसद्दीलाल और भ्रष्टाचार..

वर्ष 2001 में आया एक टीवी धारावाहिक हिट हुआ था जिसका पात्र एक आम आदमी मुसद्दीलाल भ्रष्टाचार और लोगों की कामचोरी के आदत के बीच विभिन्न सरकारी कार्यालयों में अपना काम करवाने के लिए संघर्ष करता है। उसी तरह के सीन इन दिनों कुछ जिला कार्यालयों में देखने को मिल रहे हैं।

अब बात डायवर्सन की ही ले लीजिए। सरकार ने सरलीकरण करते हुए एसडीएम कार्यालय को अधिकार दिया है। कोरबा में भी कुछ दिनों तक ये अधिकार एसडीएम को था, पर समय बदला और शहर का राजा बदला तो नियम भी अपने लगा दिए। अब डायवर्सन जैसे कामों के लिए भी लोगों भू अधीक्षक कार्यालय के चक्कर काटने पड़ रहे हैं।

मतलब एसडीएम कार्यालय में चढ़ावे के साथ ही भू अधीक्षक कार्यालय के परमिशन के लिए अलग से चढ़ावा चढ़ाना पड़ रहा है। दो कार्यालयों के चक्कर में लोगों को डायवर्सन तो महंगा पड़ ही रहा है साथ ही समय पर काम भी नहीं हो रहा है। इस टेबल से उस टेबल के चक्कर अब “ऑफिस ऑफिस” की याद दिला रहे हैं।

ट्रांसपोर्ट नगर पर बयान का एक्सपोर्ट

ऊर्जा नगरी में इन दिनों बरबसपुर में प्रस्तावित ट्रांसपोर्ट को लेकर बयानबाजी का दौर चल रहा है। कांग्रेस, भाजपा एक दूसरे पर अंगुली उठा रहे हैं। कोई आरोप लगा रहा है तो कोई माफी मांगने की बात कर रहा है।

पहले मंत्री ने फटकार लगाई और उसमें नेता भी शामिल हो गए। बेचारा बरबसपुर बेबशपुर बन गया है। बरबसपुर का कसूर इतना है कि यहां सरकार ने नया ट्रांसपोर्ट नगर बसाने के लिए जमीन अलाट कर दी। उसे क्या मालूम उसकी ​कीमत कितनी है, वो तो खुद को केवल बरबसपुर ही समझता रहा है। अब उसे अपनी कीमत पता चली है। लेकिन उनकी बेवसी उसे बेबशपुर बना रही है। उसे अच्छी तरह से पता है, नेता सरकार जो चाहेंगे वहीं होगा।

फिलहाल आगे देखिए क्या होता है। बरबसपुर की किस्मत चमकेगी या उसे बेबशपुर बन कर रहना होगा।

धान पानी पाला और ताला

 

छत्तीसगढ़ में भानुप्रतापपुर उपचुनाव से शुरू हुआ आरक्षण विवाद अभी थमा नहीं है, इन सबके बीच धान खरीदी का मुद्दा दब गया है। ना मौसम की मार की बात हो रही हैं और ना ही पाला से हो रहे फसलों हो रहे नुकसान पर कोई बात करने को तैयार है। कई खरीदी केंद्रों में धान को पानी से बचाने के तिरपाल तक नहीं हैं। इसका नुकसान किसान के साथ सरकार को उठाना पड़ा रहा है।

सत्ता पक्ष सरकार के 4 साल का गुणगान कर रहा है तो विपक्ष नाकामियां गिनाने में लगा है। धान खरीदी पर मीडिया की खबरों पर भी ताला लगा हुआ है। ऐसे में किसान आंसू बहाते हुए सब कुछ बर्बाद होते देखने के अलावा कुछ नहीं कर सकता। अब वो भगवान भरोसे है।

     ✍️ अनिल द्ववेदी, ईश्वर चन्द्रा

 

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