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बंटेंगे तो कटेंगे’ कहने वाली बीजेपी जाति जनगणना के फेरे में क्‍यों आई?

Census in India: विपक्ष की जातिगत जनगणना की मांग का जवाब अभी तक बीजेपी अक्‍सर ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ के नारे के साथ देती थी. वह जातियों को हिंदुत्‍व की ढाल के तले लाने के लिए प्रयासरत थी लेकिन अचानक ऐसा क्‍या हुआ कि जब जनता पहलगाम पर सरकार के एक्‍शन की राह देख रही थी कि तभी अचानक सरकार ने जातिगत जनगणना कराने का फैसला कर सभी को चौंका दिया? इसका फौरी कारण तो ये दिखता है कि अगले कुछ महीनों में बिहार में चुनाव होने वाले हैं. वहां पर तेजस्‍वी यादव और राहुल गांधी इसको बड़ा चुनावी मुद्दा बनाना चाहते थे लेकिन थोड़ा यदि बारीकी से आकलन किया जाए तो पाएंगे कि 2024 के आम चुनावों के बाद से ही बीजेपी के अंदरखाने ये महसूस किया जाने लगा था कि ‘कमंडल’ के बाद अब ‘मंडल’ की राजनीति पर भी फोकस करना पड़ सकता है.

ऐसा इसलिए भी क्‍योंकि राम मंदिर आंदोलन अपने लक्ष्‍य को प्राप्‍त कर चुका है. हिंदुत्‍व की पिच उत्‍तर भारत में बीजेपी की प्रचंड कामयाबी के साथ ही सैचुरेशन के स्‍तर पर पहुंच चुकी है. लेकिन यूपी में लोकसभा चुनाव के दौरान अखिलेश यादव और कांग्रेस का पीडीए कार्ड सफल रहा. बीजेपी पिछड़ गई. इसी तरह मराठा आंदोलन की पृष्‍ठभूमि में महाराष्‍ट्र के चुनावी नतीजे बीजेपी के अनुकूल नहीं रहे. लिहाजा इसकी काट में जब पिछले नवंबर में वहां विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी का बंटेंगे तो कटेंगे पोस्‍टर वहां की सियासी सुर्खियां बना.

 

कहने का आशय ये है कि बीजेपी जहां अपने हिंदुत्‍व के मुद्दे पर बने रहना चाहती है वहीं अब वो मंडल की राजनीति में विपक्ष को कोई मौका देने के मूड में नहीं है. वो ये भांप चुकी है कि विपक्ष अब इसी मुद्दे पर खेलेगा लिहाजा उनका मुद्दा छीनकर मंडल और कमंडल की राजनीति को एक साथ साधना चाहती है. यानी अभी तक मंडल बनाम कमंडल की राजनीतिक दिशा को अब वह एक ही छतरी के तले लाना चाहती है.

सवर्ण जातियों का क्‍या होगा?

बीजेपी के निर्णय के बाद ये कहा जा रहा है कि इस फैसले के बाद बीजेपी का परंपरागत वोटर रहीं सवर्ण जातियां उससे नाराज हो सकती हैं. छटक सकती हैं. विपक्षी खेमे में जा सकती हैं. इस सवाल को इस तरह से देखा जाना चाहिए कि जाति के मुद्दे पर अब बीजेपी का स्‍टैंड भी क्लियर हो गया है लेकिन बीजेपी का मामला इसलिए अलग है क्‍योंकि यही एकमात्र पार्टी रही है जिसने सवर्णों में ईब्‍ल्‍यूएस कैटेगरी के तहत 10 प्रतिशत आरक्षण देने का काम किया.

उत्‍तर-दक्षिण वाली बात

दक्षिण के राज्‍य जनसंख्‍या के आधार पर परिसीमन के मुद्दे को लगातार उठा रहे हैं. जातिगत जनगणना होने से इस मुद्दे की धार कुंद हो सकती है क्‍योंकि अभी तक आधिकारिक जातिगत जनगणना का आधार 1931 रहा है. जनगणना होने से उत्‍तर भारत में भी ओबीसी के नंबर्स में उल्‍लेखनीय वृद्धि होना लाजिमी है. लिहाजा ये सवाल उठेगा कि इनकी सीटों में इजाफा हो. जाहिर सी बात है कि ये संख्‍या उत्‍तर भारत में ही सबसे ज्‍यादा बढ़ेगी. इस कारण उत्‍तर बनाम दक्षिण की परिसीमन की लड़ाई खत्‍म हो सकती है.

आरएसएस की सोच

संघ का इस मामले में रुख ये रहा है कि जातीय जनगणना कराने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन इसका राजनीतिक रूप से इस्‍तेमाल नहीं होना चाहिए. आरएसएस ने पिछले साल सितंबर में ही ये बात कही थी. संघ की दरअसल सोच ये है कि सरकार के पास जातीय आंकड़ा होना चाहिए तभी वो अपनी कल्‍याणकारी योजनाओं को वास्‍तविक लाभार्थियों तक सही ढंग से पहुंचा सकती है. उनके बारे में सटीक जानकारी होने से ही ये संभव है.

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