न्यूज डेस्क। जीवनी किसी की भी हो, वह दूसरे को बस दो वजहों से आकर्षित करती है। एक उसकी शख्सियत का शुक्ल पक्ष और दूसरा पक्ष वो जिसके बारे में उसके जीते जी ज्यादा बातें नहीं हो सकीं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को चाहने वाले देश में करोड़ों की तादाद में हैं। उनको प्रधानमंत्री बनते देखना एक पूरी पीढ़ी का जिया ऐसा सुख रहा है जिसके बारे में बताने के लिए शायद सही शब्द तलाशना मुश्किल हो। एक वोट से जब वाजपेयी की सरकार गिरी, उस दिन दूरदर्शन की टीआरपी ने संसद से सीधे प्रसारण के मामले में नया रिकॉर्ड बनाया था। जिस तेवर के साथ वाजपेयी ने कहा, ‘मैं जा रहा हूं राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा सौंपने…!’ वह छवि उनके प्रशंसकों और विरोधियों दोनों के मन में अंकित है। उस छवि में अब पंकज त्रिपाठी को रखकर देखिए। ‘ओएमजी 2’ वाले पंकज त्रिपाठी। वो पंकज त्रिपाठी जो अपने भीतर के कलाकार के नवोन्मेष के लिए मेहनत करने को तैयार हैं, जोखिम लेने को तैयार हैं।
अटला के अटल बिहारी वाजपेयी बनने की कहानी
फिल्म ‘मैं अटल हूं’ सिर्फ दो घंटे 20 मिनट की फिल्म है। इस लिहाज से चुनौती इसके निर्देशक रवि जाधव के सामने इस बात की रही कि वाजपेयी के जीवन का इसमें कौन सा अध्याय शामिल करें और कौन सा नहीं? कहानी वहां से शुरू होती है जहां अटल को उनके घर वाले अटला कहकर बुलाते हैं। पिता लोगों की आंखों में आंखें डालकर बात करने की सीख देते हैं और साथ में पढ़ने कानपुर तक चले आते हैं। वाजपेयी का संघ प्रेम यहीं पूरी तरह परिलक्षित होता है। पिता की आज्ञा लेकर वह देशसेवा के लिए निकलते हैं। इंदिरा की इमरजेंसी से दो चार होते हैं, राजनीतिक भंवरों से पार पाते हैं और आखिरकार देश के प्रधानमंत्री बनने में कामयाब होते हैं। भाजपा के मुंबई अधिवेशन में बिना उनसे पूछे आडवाणी जब वाजपेयी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित करते हैं, तो फिल्म भावुकता के चरम पर होती है। भावुकता की एक बयार फिल्म में वाजपेयी और राजकुमारी की प्रेम कहानी भी है। अगर सिर्फ इसी एक अंतर्कथा पर कोई अलग से फिल्म बने तो ये एक विलक्षण प्रेम कहानी नई पीढ़ी के सबक के तौर पर बन सकती है।
वाजपेयी का स्तुति गान नहीं
अटल बिहारी वाजपेयी की दिल को छू लेने वाली कविताएं, उनका ओजस्वी भाषण और विपक्ष को अपने मजाकिया अंदाज से ढेर कर देने वाले पूर्व प्रधानमंत्री की ये बायोपिक उनका स्तुति गान नहीं है। फिल्म निर्माता विनोद भानुशाली ने इसे एक तटस्थ फिल्मकार के रूप में बनाने की कोशिश की है। और, इसमें कमोबेश वह सफल भी रहे हैं। फिल्म के लिए रवि जाधव का बतौर निर्देशक चुनाव उनका महत्वपूर्ण फैसला रहा और उससे पहले पंकज त्रिपाठी को वाजपेयी के रोल मे चुनना उससे अहम सोच। फिल्म ‘मैं अटल हूं’ पूरी तरह से पंकज त्रिपाठी की फिल्म है। पूरी फिल्म को लिखा भी रवि और ऋषि ने इसी अंदाज में है कि कथानक का केंद्र बिंदु उन्हीं का किरदार बना रहता है। फिल्म कारगिल युद्ध और वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुए परमाणु परीक्षण तक आकर थम जाती है। गुंजाइश इसकी सीक्वल बनने की इसके बाद नजर आती है, लेकिन मुझे लगता है कि इस अध्याय को यहीं विराम दे देना चाहिए।
पंकज त्रिपाठी के अभिनय का उत्कर्ष
फिल्म ‘मैं अटल हूं’ में पंकज त्रिपाठी ने अपनी पूरी जान एक ऐसे किरदार को निभाने में लगा दी है जिसे इस देश के लोगों ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर प्रेम किया। वाजपेयी जैसे हाव भाव, हस्त मुद्राएं और आंखों को मींचकर पंच लाइन बोलने के उनके अंदाज को पंकज ने काफी कुछ कैमरे के सामने उतारा है। अच्छी बात यहां ये है कि वह वाजपेयी बनने की कोशिश नहीं करते। वह अभिनेता पंकज त्रिपाठी के रूप में ही वाजपेयी दिखने लगते हैं। और, एक बार किरदार की लय पकड़ने के बाद फिर पूरी फिल्म में फिर पंकज त्रिपाठी नहीं दिखते। यही उनके अभिनय का उत्कर्ष है। कॉलेज के दिनों के दृश्यों में पंकज ने वाजपेयी की आकर्षक छवियां प्रस्तुत की हैं। वोट मांगने के उनके इसी अंदाज पर कॉलेज की छात्रा राजकुमारी मोहित होती है। किताब में प्रेम पत्र रखकर बढ़ाने की उनकी अदा भी कातिलाना है। फिल्म ‘मैं अटल हूं’ में पंकज त्रिपाठी के सामने चुनौती एक ऐसा किरदार निभाने की भी रही है जो हिंदी व्याकरण का ज्ञाता है। बिहार की अपनी पृष्ठभूमि के चलते पंकज को कर्ता, कर्म और क्रिया के समन्वय में इसके संवाद बोलते समय दिक्कत जरूर आई होगी, लेकिन तारीफ करनी चाहिए उनके हुनर और हौसले की कि वह अपनी इस अग्निपरीक्षा में सफल रहे।