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Black gold, black money and CBI: खाकी के प्रोडक्शन हॉउस में तस्करी अपग्रेड, कोबरा की फुंफकार,कौन सुनेगा किसको सुनाए…सेंट्रल एजेंसी की आहट और अफसरों की नींद गायब,सर्दी खांसी न मलेरिया हुआ..लवेरिया हुआ

खाकी के प्रोडक्शन हॉउस में तस्करी अपग्रेड, सिस्टम डाउनग्रेड

कोरबा की नदिया के उस पार इन दिनों कानून नहीं, लोभ की लहरें बह रही हैं। खाकी के खिलाड़ी अब चौक-चौराहों पर कानून नहीं, कोलियरी के रेट पूछते पाए जाते हैं। कभी यह जिला खदानों की पहचान से जाना जाता था, आज वही खदानें खाकी और काले हीरे की जुगलबंदी के कारण चर्चाओं में हैं।
अर्सों पहले बिहार पर बनी एक फिल्म ने खूब नाम कमाया था। आज उसकी “लोकल रीमेक” कोरबा में शूट हो रही है..

स्क्रिप्ट बिहार से, लोकेशन कोरबा से, और प्रोडक्शन हाउस… खाकी से!!! अंतर बस इतना कि इस फिल्म में नायक नहीं, तस्करी के खलनायक मुख्य भूमिका में हैं और यह फिल्म कोयला चोरी के लिए लिखी जा रही है, और इसके निर्माता निर्देशक वही लोग हैं जिन्हें कानून व्यवस्था की रखवाली करनी थी।

खदान से हो रहे काले हीरे की तस्करी को लेकर चौक चौराहे में लगने वाली मंडली चटखारे लेते हुए कह रहे है कि “कोरबा में कोयला नही अब ईमान जलता है और पुलिस धुएं में आंख मलती है जैसे कुछ देखा नहीं “ जहां पहरेदार ही सौदेबाज हो,  वहां चोरी नहीं व्यवस्था दम तोड़ती है…! ”

दरअसल एसईसीएल की शान कही जाने वाली खदानें आजकल किसी तस्करी फ़ेस्टिवल का केंद्र बन चुकी हैं। कोरबा की पहचान अब कोयले की परतों से नहीं, बल्कि खाकी की परतों पर चढ़ी दिलचस्पी से हो रही है। लगता है काले हीरे की चमक ने वर्दी का रंग फीका कर दिया है। खाकी धूप में नहीं, कोलियरी की धुंध में रंग बदल रही है।

पुराने लोग कहते हैं कि कोयला चोरी कोई नई बात नहीं। सरकारें आईं, सरकारें गईं, मगर कोयले की तस्करी का उत्साह कभी मंद नहीं पड़ा। बस खिलाड़ी अपग्रेड होते गए और तरीके टेक्निकल। पहले साइकिल में बोरियां जाती थीं, फिर ट्रैक्टर आए, अब तो जीपीएस वाले डिजिटल ट्रक चलन में हैं।

अजीब बात यह है कि जितना कोयला गायब होता है, उतनी ही फाइलें मोटी होती जाती हैं। काला हीरा जितना चोरी होता है, उतनी ही मीटिंगें हो जाती हैं और हर मीटिंग में कानून व्यवस्था की मजबूती पर तोते की तरह रटे रटाए सुंदर-सुंदर वाक्य पढ़े जाते हैं।

खाकी के खिलाड़ी आजकल खदानों के आसपास उतने ही सक्रिय हैं जितने कभी पुलिस पेट्रोलिंग में नहीं दिखते।

अब हालात इतने स्पष्ट हो गए हैं कि खनिज विभाग से ज्यादा खाकी को खनन का अनुभव है और तस्करों से ज्यादा खाकी को तस्करी के रूट पता हैं।

किसी दिन कोयला कम पड़ जाए तो शायद रिपोर्ट भी वही दे दें कि खान से कानून(कोयला) गायब हो गया है। खनिज कारोबार के एक्सपर्ट कहने लगे है खाकी के खिलाड़ी तो अब कोयले की दलाली में लगे है।

 

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कोबरा की फुंफकार.. कौन सुनेगा किसको सुनाए…

 

जिले का छोटा निर्माण विभाग इन दिनों ऐसा चल रहा है कि लगता है मानो अंधेर नगरी की फ्रेंचाइज़ी यहीं खोल दी गई हो। ऊपर की मेज से लेकर नीचे की कुर्सी तक, हर जगह सिर्फ एक ही आवाज़ “खनखन… खनखन…” जैसे विभाग नहीं, नोटों की धुन पर नाचता ऑर्केस्ट्रा पार्टी हो।ठेकेदार भी बड़े पहुंचे हुए, ऊपर तक हाथ, मंत्रियों तक पैर, पर साहब के सामने पहुंचते ही सबके पंख ऐसे झड़ जाते हैं जैसे गर्मियों में कौवे की क्रीड़ाएं..और साहब भी कोई सामान्य अधिकारी नहीं…

पूरे के पूरे विभाग का ‘कोबरा संस्करण।’ जिसे देखते ही ठेकेदार भी फन समेट लेते हैं और कर्मचारी भी सांस रोककर जीते हैं।

विभाग में स्थिति यह है कि जीरो टॉलरेंस वाली सरकार के दौर में भी वर्क ऑर्डर की ‘एंट्री फीस’ डेढ़ प्रतिशत पर स्थिर है, जैसे सरकार ने ही नोटिफिकेशन जारी किया हो। फाइलें नहीं चल रहीं, हिसाब-किताब दौड़ रहा है। काम नहीं हो रहा, लेन-देन हो रहा है और ठेकेदार काम के बजाय कैलकुलेटर से जूझते मिल रहे हैं।

लेकिन एक बात तय है, जिस अत्याचार का रंग जितना गहरा, उसके अंत का पर्दा उतना ही निकट होता है। यह जो ‘दफ्तर नामक नाटक’ चल रहा है, इसका इंटरवल बहुत लंबा नहीं होगा और चोर चाहे कितनी भी चालाकी से पैर रखे…कानून उसके जूतों का नंबर भी पहचान लेता है। फिलहाल विभाग में माहौल ऐसा है कि सब चुप हैं, गाना वही है…“कौन सुनेगा किसको सुनाए…”

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सेंट्रल एजेंसी की आहट.. अफसरों की नींद गायब

 

कोरबा में इन दिनों हवा में ऑक्सीजन कम और जांच का डर ज्यादा फैला हुआ है। कोयला खदानों की धूल तो लोगों की आदत में है, मगर अफसरों के मन में जो धुंध जमा है, वह सिर्फ सेंट्रल एजेंसी के नाम से उड़ रही है और अब दशा यह है कि मानो पूरा जिला किसी अनाउंसमेंट का इंतजार कर रहा हो।

इन अफसरों के बीच एक लाइन खूब चल रही है:“डर सबको लगता है, गला सबका सूखता है।” ये लाइन इतनी लोकप्रिय हो गई है कि इसे टी-शर्ट पर छपवा दें तो मार्केट में एकाध दिन में आउट ऑफ स्टॉक हो जाए।

कोयला खदानों में कागजों पर महल खड़े करने वाले और सरकारी जमीन को निजी बताकर अपनी कलम की ताकत दिखाने वाले कुछ अधिकारियों की बेचैनी इस कदर बढ़ गई है कि मानो एजेंसी नहीं, भूत घूम रहा हो। किसी को पुरानी फाइलें याद आ रही हैं, कोई आधी रात को रिकॉर्ड्स साफ कर रहा, कोई डायरी ऐसे जला रहा जैसे सर्दियों में पहला “हवन” हो। जो अफसर जीवन में कभी पैदल 500 मीटर नहीं चले, वे भी अब ट्रांसफर के लिए राजनीतिक चाणक्यों के दरवाजे पर नंगे पैर परिक्रमा कर रहे हैं।

जिले से बाहर जाने की तैयारी ऐसे हो रही है जैसे मानो ट्रेन छूटने वाली हो। बैग भी पैक, तर्क भी तैयार, और सहानुभूति लूटने के लिए चेहरे पर मजबूरी का मेकअप भी लगा हुआ। “हम निर्दोष हैं… हमें फंसाया गया है।” मूल रूप से वही डायलॉग जो हर गलती पकड़े गए अफसर की जेब में ऑफिस आईडी कार्ड की तरह रहता है।

असल में मामला यह है कि जब तक सब ठीक चलता है तब तक अफसरों को नियम याद नहीं आते। लेकिन जैसे ही किसी सेंट्रल एजेंसी का नाम हवा में घूम जाता है, अचानक उन्हें संविधान, सेवा नियम और ट्रांसफर पॉलिसी सब याद आ जाता है।

अब देखने वाली बात यह है कि पहले कौन पहुंचता है? जांच की रफ्तार या अफसरों की पलायन गति? फिलहाल तो माहौल यह है कि जैसे किसी ने कोरबा में प्रशासनिक म्यूजिकल चेयर शुरू कर दी हो… और कुर्सी कम पड़ गई हो। देखा जाए तो स्थिति साफ है और कोरबा में अफसरों की धड़कनें कोयला खदानों के ट्रकों से भी तेज़ भाग रही है।

सर्दी खांसी न मलेरिया हुआ..लवेरिया हुआ

‘राजू बन गया जेंटलमैन’ मूवी में शाहरूख पर फिल्माया गया “सर्दी खांसी न मलेरिया हुआ..लवेरिया हुआ..सांग्स काफी पापुलर हुआ था। मगर यहां हम जिस जेंटलमैन की बात कर रहे हैं वो लवेरिया के चक्कर में फटेहाल हो गया। राजू बन गया जेंटलमैन में हीरोइन जूही चावला थी मगर राजधानी के खम्हारडीह थाना में जो स्क्रिप्ट लिखवाई गई, उसमें क्लामेक्स आते तक जूही की जगह महिला डीएसपी की धमाकेदार एंट्री हुई है। जिस पर शहर के एक जेंटलमैन ने करोड़ों की ठगी के आरोप लगाये हैं।

मामला हाईप्रोफाइल है और महिला डीएसपी का रसूख भी तो थानेदार भी क्या करे। अब लवेरिया के चक्कर में तंगहाल हुए जेंटलमैन अफसरों की चौखट पर करोड़ों की ठगी दस्तावेज लेकर अपना पैसा वापस मांगने के लिए चक्कर लगा रहे हैं। इसी मौके लिए किसी शायर ने शायद ठीक ही कहा था..ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे इक आग का दरिया है और डूब के जाना है। मगर जनाब करोड़ों को छोड़िये…यहां तो न तो आग है न दरिया..महिला डीएसपी का मामला और शोर मचाया तो सीधे जेल जाना है।

काला सोना.काली कमाई और सीबीआई

कोरबा जिला अपने काला सोना और काली कमाई लेकर फिर चर्चा में है। पहली खबर वाकई सुकून भरी है..नवंबर 2025 में एसईसीएल ने कोयला उत्पादन और डिस्पेच में रिकॉर्ड तोड़ा और फर्स्ट माइल कनेक्टिविटी में 1000 से अधिक रेक देश विदेश को भेजे..बधाई हो। मगर दूसरी खबर कोयला खदानों से मिलने वाली डीएमएफ फंड की काली कमाई से जुड़ी है।

खबरीलाल की मानें तो डीएमएफ फंड खर्चने में हुए कालेपीले की खबर सीबीआई तक पहुंची है। ननकीराम कंवर के लेटर बम से पीएमओ तक में हलचल है। हालांकि डीएमएफ को कहां खर्च करना है ये राज्य सरकार का मामला है और कलेक्टर इसके अध्यक्ष हैं।

मगर, इस कालेपीले के चक्कर में कई नए पुराने कलेक्टर नप जाएंगे। असल में अफसरों के साथ सांठगांठ करने वाले सप्लायर और ​बगल इया करने वाले छुटभइये नेता और अधिकारी भी सीबीआई के रेडार पर हैं।

खबरीलाल को खबर है कि सीबीआई के पास इस काली कमाई के सबूत पहले से पहुंचे चुके हैं। लेकिन, सीबीआई सरकार से डीएमएफ से जुड़ी फाइल मांग रही है।

इन दोनों के मिलान के बाद कई सफेदपोशों कार्यवाही होना है। अब सीबीआई की गाज किस पर गिरने वाली है इसका अंदाजा उन चेहरों को देखकर लगाया जा सकता है, जिनकी रंगत उड़ी हुई है।

          ✍️अनिल द्विवेदी,ईश्वर चन्द्रा

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